हमने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) को बेहतर करना सिखाया, इसे स्मार्ट कहा और हर छोटे-बड़े निर्णय से पहले उस पर भरोसा करना शुरू कर दिया। लेकिन डराने वाली सच्चाई यह है कि हमने इसे ‘सोचने’ तो सिखा दिया, मगर ‘परवाह करना’ नहीं सिखाया। यही वजह है कि अब AI हमारे लिए ऐसे फैसले ले रहा है जिनका असर इंसानियत पर सीधा पड़ रहा है। चाहे किसी को लोन देना हो, हेल्थकेयर मुहैया कराना हो या किसी कैदी की पैरोल पर रिहाई का फैसला – इन सबमें अब मशीनों का दबदबा बढ़ गया है। असल चिंता ये है कि हमने फैसलों की जिम्मेदारी उठाने से बचने के लिए मशीनों को आगे कर दिया है।

सही दिखने वाले गलत नतीजे
कहते हैं आंकड़े कभी झूठ नहीं बोलते, लेकिन सच यह है कि डेटा भी इंसानी कमजोरियों और पक्षपात से भरा होता है। यही डेटा जब AI मॉडल्स में जाता है तो गलत पैटर्न्स और भेदभाव भी सिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं। उदाहरण के लिए, क्रेडिट स्कोरिंग टूल्स गरीब इलाकों के लोगों को अक्सर डाउन-रैंक कर देते हैं। हायरिंग एल्गोरिद्म केवल कुछ चुनिंदा यूनिवर्सिटी या शहरों के उम्मीदवारों को प्राथमिकता देते हैं। यहां तक कि फ्रॉड डिटेक्शन सिस्टम उन लोगों को फंसा देते हैं जिनका डिजिटल पैटर्न “बहुसंख्यक” जैसा नहीं दिखता। नतीजा ये निकलता है कि अच्छे इरादे के बावजूद सिस्टम नुकसान पहुंचाने लगता है और असमानताएं और गहरी हो जाती हैं।
नैतिकता को सिस्टम में शामिल करना जरूरी
AI में खामी तकनीकी नहीं, बल्कि नैतिकता की कमी है। असली खतरा तब शुरू होता है जब टीम फैसले लेने की जिम्मेदारी AI पर डाल देती है और बिना सवाल पूछे मशीन के सुझावों को मान लेती है। बाद में जब जवाबदेही की बारी आती है तो हर कोई कह देता है – “मॉडल ने ऐसा कहा था।” यही वजह है कि अब दुनिया भर में AI रेग्युलेशन की मांग तेज हो रही है। लेकिन नियम-कानून अकेले काफी नहीं हैं। जरूरत है उस हिम्मत की, जो तब भी सवाल पूछे जब सब कुछ परफेक्ट दिख रहा हो। असल लीडरशिप वही है जो केवल नतीजों को ऑप्टिमाइज न करे, बल्कि इंसानियत और नैतिकता के लिए जगह बनाए। क्योंकि AI हमारी जिंदगी पर इतना असर डालेगा जितना हम सोच भी नहीं सकते। सवाल ये नहीं है कि हम इंटेलिजेंट सिस्टम बना सकते हैं या नहीं – सवाल ये है कि क्या हम उनमें इंसानियत भी जोड़ पाएंगे।